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अ॒यं द्यो॑तयद॒द्युतो॒ व्य१॒॑क्तून्दो॒षा वस्तोः॑ श॒रद॒ इन्दु॑रिन्द्र। इ॒मं के॒तुम॑दधु॒र्नू चि॒दह्नां॒ शुचि॑जन्मन उ॒षस॑श्चकार ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ayaṁ dyotayad adyuto vy aktūn doṣā vastoḥ śarada indur indra | imaṁ ketum adadhur nū cid ahnāṁ śucijanmana uṣasaś cakāra ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒यम्। द्यो॒त॒य॒त्। अ॒द्युतः॑। वि। अ॒क्तून्। दो॒षा। वस्तोः॑। श॒रदः॑। इन्दुः॑। इ॒न्द्र॒। इ॒मम्। के॒तुम्। अ॒द॒धुः॒। नु। चि॒त्। अह्ना॑म्। शुचि॑ऽजन्मनः। उ॒षसः॑। च॒का॒र॒ ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:39» मन्त्र:3 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:11» मन्त्र:3 | मण्डल:6» अनुवाक:3» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वान् जन कैसा वर्त्ताव करें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) सूर्य्य के सदृश वर्त्तमान विद्वन् ! जैसे (अयम्) यह (इन्दुः) गीला करनेवाला सूर्य्य (अद्युतः) नहीं प्रकाश करनेवाले भूमि आदिकों को और (अक्तून्) रात्रियों को (दोषा) प्रभातकालों को (वस्तोः) दिन को (शरदः) शरद् आदि ऋतुओं को (वि, द्योतयत्) प्रकाशित करता है और (अह्नाम्) दिनों के (चित्) भी (शुचिजन्मनः) सूर्य्य से जन्म जिसका उस (उषसः) प्रभात वेला की प्रकटता को (चकार) करता है, वैसे (इमम्) इस (केतुम्) बुद्धि को प्रकाशित कीजिये और जैसे इस प्रकाशस्वरूप सूर्य्य को प्रभात वेलायें (अदधुः) धारण करें, वैसे (नू) शीघ्र विद्या के प्रकाश को धारण करिये ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे विद्वान् जनो ! आप लोग जैसे सूर्य्य, अप्रकाशक भूमि आदि का प्रकाश करने और आनन्द करनेवाला पवित्र क्षण आदि समयों का निर्म्माण करता है, वैसे मनुष्यों के आत्माओं के प्रकाशक हुए विद्या की वृद्धि करनेवाले कर्म्मों को निष्पन्न कीजिये और कर्मों का प्रचार कराइये ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वांसः कथं वर्त्तेरिन्नित्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वन् ! यथाऽयमिन्दुः सूर्योऽद्युतोऽक्तून् दोषा वस्तोः शरदो वि द्योतयदह्नां चिच्छुचिजन्मन उषसः प्रादुर्भावं चकार तथेमं केतुं द्योतय यथेमं प्रकाशमयं सूर्य्यमुषसोऽदधुस्तथा नू विद्याप्रकाशं धेहि ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अयम्) (द्योतयत्) प्रकाशयति (अद्युतः) अप्रकाशकान् भूम्यादीन् (वि) (अक्तून्) रात्रीः (दोषा) प्रभातवेलाः (वस्तोः) दिनम् (शरदः) शरदादीन् ऋतून् (इन्दुः) आर्द्रीकरः (इन्द्र) सूर्यवद्वर्त्तमान (इमम्) (केतुम्) प्रज्ञाम् (अदधुः) दधतु (नू) क्षिप्रम्। अत्र ऋचि तुनुघेति चेति दीर्घः। (चित्) अपि (अह्नाम्) दिनानाम् (शुचिजन्मनः) शुचे रवेर्जन्म यस्यास्तस्याः (उषसः) प्रभातवेलायाः (चकार) करोति ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो ! यूयं यथा सूर्य्योऽन्येषाम्प्रकाशकानां भूम्यादीनां प्रकाशक आनन्दकरः पवित्रक्षणादीन्त्समयान्निर्निमीते तथा जनानामात्मनां प्रकाशकाः सन्तो विद्यावृद्धिकराणि कर्माणि निष्पादयत कर्माणि च प्रचारयत ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो ! जसा सूर्य अप्रकाशक भूमीचा प्रकाशक, आनंददायक, पवित्र क्षण व वेळ यांचा निर्माणकर्ता आहे. तसे माणसाच्या आत्म्याला प्रकट करणारे, विद्येची वृद्धी करणारे कर्म निष्पन्न करा व कर्मांचा प्रचार करा. ॥ ३ ॥